Monday, October 3, 2011

मन

मन चिंतन रुपि एक योगी
देस विदेस का भ्रमण करे
कभी दुखों से अंजुली भरता कभी
सुखों की सौगात करे

मन एक औलिया के जैसा
हर दर पर झोली फ़ैलाता है
करता याचना भिक्षा की
और खाली हाथ रह जाता है

मन एक कलंदर अविनाशी
जोत अलख की जगाता है
अँधकार की सीमा पर भी
थोडा प्रकाश फैलाता है

मन उस संन्यासी के जैसा
जो मोक्ष मार्गस्थ किये
सब मोह रिते कर जीवन के
पर ज्ञान कमंडलु भरे हुए

मन वैरागी वैराग्य लिए
जग के अस्तित्व को झुठलाता है
सजीवों को निरुपाय कहता और
पत्थरों को देव बतलाता है

मन ब्रम्हवृंद है इस तन की
देवों सी करता वंदना
कभी गौरव श्लोक अर्पण करता
कभी करता निर्घूण भर्त्सना

मन मानों तो है योगेश्वर
जीवन रहस्य को सिखलाते
कभी मृत्यु को भाषित करते
कभी जीवन मार्ग दिखलाते

मन तो मन है बस मन जैसा
जब चाहे जैसा रूप धरे
सुख दुःख के हिंडोलों पर बैठा
आस निरास के खेल करे

-संदीप प्रल्हाद नागराले
०१-अक्टूबर-२०११