Thursday, January 24, 2008

बस मौन रहो

मेरे स्पर्शों को तुम सिर्फ्
अनुभव करो
कुछ ना कहो
बस! मौन रहो ।
तुम्हारे अंग अंग की भाषा
मेरे अंगों को मालूम है
फिर क्यों शब्दों के
जाल बुनें मैं और तुम ।
देखो! नयनों ने समझ ली
तुम्हारे नयनों की भाषा
शायद इसलिये शर्म से
झुक गये हैं ।
ऑठ चाहते हैं, शायद सानिध्य
तुम्हारे ऑठों का
शायद इसलिये वे बार बार
दांतों से भींच जाते हैं
अंगुलियां भी क्यों अविरत
तुम्हारे केशों से क्रिडा कर रहीं
स्पनंदन देखो ह्रदय का
यूं ही बढा जा रहा है ।
जानते हो क्या
मुझे कहना है
तुम्हारे शब्दों की सीमा
मुझे भी ज्ञात है
तो.............
सिर्फ मेरे स्पर्शों को
तुम अनुभव करो
कुछ न कहो
बस! मौन रहो ।


- सन्दीप
१५/०४/९९

Wednesday, January 23, 2008

सपनों का राजदार

मेरे सपनों का कोई तो राजदार हो
मेरा अपना हो, मेरे पास हो
मुझसे भी किसी को प्यार हो
मेरे सपनों का कोई तो राजदार हो ।

किसी के आते ही सन्म्मुख
धडकने ह्र्दय की बढ जायें
अनगिनत तारों को छेड दे जैसे मस्तिष्क
अंग-अंग उसकी प्रशंसा में गीत गाये
पदविन्यास ऐसा हो, नाच नाचकर
शरीर थक जाये
मैं कभी चाहूं तो, उसकी
बांहों में बदन का पसार हो
मेरे सपनों का कोई तो राजदार हो ।

मेरे अनुभवों का साक्षी हो
मेरे साथ रहे
दुखों के दरिया में मेरे
साथ-साथ बहे,
मेरी आशा, मेरी सफलता
मेरी भावनाऑ, मेरी श्रद्धा
का एक स्थान हो
पुण्य तो बंट जायेंगे
मेरे पापों का भी वह हिस्सेदार हो
मेरे सपनों का कोई तो राजदार हो ।

मेरी बॉंहों की सीमा में,
किसी का अहम सिमट जाये
किसी का अस्तित्व, मेरे व्यक्तित्व
के दायरे मे आकर मिट जाये
कोई अनमोल समझकर, मेरे विचारों
की बोली लगा दे
कोई मेरी खातिर कभी
बेमोल बिक जाये
किसी के साथ, इस ह्र्दय का
कभी तो व्यापार हो ।
मेरे सपनों का कोई तो राजदार हो ।

उसके लिये जिससे मैं कभी मिला ही नहीं, फिर भी अथाह प्रेम लिये बैठा हूं .
- सन्दीप

Tuesday, January 22, 2008

बिल्वदल




किसी एक दिन ब्राम्ह्ववेला मे
हुआ जब पक्षिऑ का शोर्
तब मन्द मन्द जीवन सुगन्ध ले
चला समीर क़ुन्जनबन की ओर्
आम्र् नीम् नीलगिरी, बेल के
सुन्दर सघन वन्
हवा के आलिंगन से
हुवा कुछ कम्पन्
बेलवृक्ष जब नर्तन कर
हवा के संग लहराये
छोङ वृक्ष का साथ बिल्वदल
झडकर भूमि पर आये।

कुछ टूटे से, कुछ् पीले से
कुछ सडकर गीले गीले से
कुछ अच्छे से, कुछ क़च्चे से
कुछ क़ोमल क़ोमल बच्चे से
कुछ वृघ्द हुए,कुछ मुडे हुए
कुछ अधकटे बेजान हुए
कुछ पतॉं कि दो ही शाखें थीं
कुछ का क़िटों ने था नाश किया
पर इनमें भी कुछ अछ्छे पत्ते थे
तीनों शाखों से पूर्ण और
हरियाली परिधान किये ।

उन पत्तों का था भाग्य बडा
जो संग लिखवाकर थे वे लाये
चुन चुनकर एक एक को
भक्तों नें
ईश्वर के शीश चढाये
देख भाग्य की यह करनी
अन्य पत्ते बहुत पछताये ।
एक वृक्ष के
एक डाल की
हम सन्तानें
संग जनम ले, संग् पलें हम्
फिर क्यों दूजा भाव?
हाय विधाता खेल तेरा
कोई समझ ना पाये
उन्हें शिर्ष ईश्वर का मिला
हम धूल धरा की खायें
हाय ! हाय !

क्रंदन उन पत्तों का
बेल वृक्ष देख रहा था
जीवन चक्र की सच्चाई का
वह एक मौन दर्शक था
कुछ बात आई मन में
वह नादानी पर मुस्काया
बोला
यही जीवन है ।
यही यथार्थ है ।
दर्शन यही है ।
यही सत्य है कि
नेत्र हमेशा धोखा खाते हैं
सम्मुख का देख सकते हैं
और पार्श्व छुपाते हैं
जो ईश्वर है,
वह सब देखता है
न कम ना ज्यादा
सबका बराबर ध्यान रखता है
जीन बेलपत्रों को आज
तुमनें उसके शीश पर देखा है
वे कल प्रातः होते ही
फेंक दिये जायेंगे
अन्य नवपल्लवित बिल्वदल
उनकी जगह पायेंगे
सोचो तुमनें क्या पाया है ?
क्या कुछ खोकर
तुम विशिष्ठ हो
जो देवों के
शीश नहीं चढते हो
यहीं दफन हो
धरा को
उर्वरित करते हो ।
सोचो कोई पौधा नया
उस पर अन्कुरित जब होगा
ऐसी मृत्यु का वरण क्या
जीवन से श्रेष्ठ ना होगा ?
और कहूं क्या?
भाग्य पर यूं दोष क्यों धरते हो
बिल्वदल हो
झड झडकर मां वसुन्धरा का
प्रथम आभिषेक तुम ही तो करते हो ।


सन्दीप
०४/०९/२००२

Monday, January 21, 2008

स्वप्न यथार्थ और मानव

स्वप्न

रुपहले परदे पर तैरती
कुछ परछाईयाँ,
बनती बिगड़ती कुछ रेखाएं
कुछ धुन्द्ली, कुछ स्पष्ट सी।
शायद अतीत की कहानियाँ कहतीं
या फिर भविष्य को परिभाषित करतीं
या फिर मनुष्य की मानसिकता
को दर्शातीं
जिन्हें हमने स्वप्न
नाम दे दिया है।

यथार्थ

धरा की गोद से भी
कठोर शैय्या पर
जन्मती भावनाएँ या कुछ और,
पग पग पर दम तोड़ती
आशाएं या कुछ और।
निराशा कि तरह
जीवन में उदासी भरता
सन्नाटे कि तरह
जीवन को नीरव करता।
न चाहकर भी अपना
अस्तित्व जतलाना
स्वछन्द मन कि उडाने रोकना
और मन को दर्पण दिखलाना।
झूठ के पर जड़ से
काटता है,
कदूवाहत जन जन को
बांटता है,
हर मनुष्य कि इच्छाओं को
झूठलाता है,
सत्य के प्रयोग करता है जो
वह यथार्थ कहलाता है.

मानव

जीवन के हवन कुंड़ में
जलते सपने सपने लिए
स्वयं की आहुति देता कोई,
यथार्थ जानकर
जग को झूठा मानकर
निराशा का दान लेता कोई।
आकाश कि ऊँचाइयों से
भी ऊँचे उसके
आकान्षाओं के झूले,
छोड़ जमीं का साथ, विचार
स्वयं का अस्तित्व भूले।
क्षण क्षण सत्य से
ठोकर खाता कोई,
जीत की आशा में
सपनों की दुनिया में
फिर फिर आता कोई।
ना सीमा दिखाई देती है,
ना समय ज्ञात होता है,
सतत एक द्वंद्व
स्वयं का स्वयं के साथ होता है।
स्वप्न से पूरक होकर ही
यथार्थ का अस्तित्व टीक पाता है ,
जब सपने टूटते हैं,
तब यथार्थ साकार हो जाता है।
फिर भी!
हार को अंत नही
पुर्नारम्भ मानता है कोई
टूटना, गिरना और लड़खड़आना
फिर भी
उठना, चलना और बस
अविरत
मंजिल कि ओर सिर्फ चलते जाना
नवजीवन का गीत
कदम कि ताल पर
मंद मंद गुनगुनाना।
तब चाह होती है
कल्पनाओं को धारा पर उतार लाने कि,
खोने के डर से दूर
बस सब कुछ पाने की।
और जब,
सपनो को यथार्थ में
परिणित् कर पाता है मानव,
उनके टूटने के डर से रहित
तब
नए नए सपने पुनश्च
आखॉ मॅ सजाता है मानव।

I dedicate this poem to my dear friend Manadr who literally forced me to change optimistic end for this poem। Mandy its for you…
-संदीप
११/०४/२००३