Monday, January 21, 2008

स्वप्न यथार्थ और मानव

स्वप्न

रुपहले परदे पर तैरती
कुछ परछाईयाँ,
बनती बिगड़ती कुछ रेखाएं
कुछ धुन्द्ली, कुछ स्पष्ट सी।
शायद अतीत की कहानियाँ कहतीं
या फिर भविष्य को परिभाषित करतीं
या फिर मनुष्य की मानसिकता
को दर्शातीं
जिन्हें हमने स्वप्न
नाम दे दिया है।

यथार्थ

धरा की गोद से भी
कठोर शैय्या पर
जन्मती भावनाएँ या कुछ और,
पग पग पर दम तोड़ती
आशाएं या कुछ और।
निराशा कि तरह
जीवन में उदासी भरता
सन्नाटे कि तरह
जीवन को नीरव करता।
न चाहकर भी अपना
अस्तित्व जतलाना
स्वछन्द मन कि उडाने रोकना
और मन को दर्पण दिखलाना।
झूठ के पर जड़ से
काटता है,
कदूवाहत जन जन को
बांटता है,
हर मनुष्य कि इच्छाओं को
झूठलाता है,
सत्य के प्रयोग करता है जो
वह यथार्थ कहलाता है.

मानव

जीवन के हवन कुंड़ में
जलते सपने सपने लिए
स्वयं की आहुति देता कोई,
यथार्थ जानकर
जग को झूठा मानकर
निराशा का दान लेता कोई।
आकाश कि ऊँचाइयों से
भी ऊँचे उसके
आकान्षाओं के झूले,
छोड़ जमीं का साथ, विचार
स्वयं का अस्तित्व भूले।
क्षण क्षण सत्य से
ठोकर खाता कोई,
जीत की आशा में
सपनों की दुनिया में
फिर फिर आता कोई।
ना सीमा दिखाई देती है,
ना समय ज्ञात होता है,
सतत एक द्वंद्व
स्वयं का स्वयं के साथ होता है।
स्वप्न से पूरक होकर ही
यथार्थ का अस्तित्व टीक पाता है ,
जब सपने टूटते हैं,
तब यथार्थ साकार हो जाता है।
फिर भी!
हार को अंत नही
पुर्नारम्भ मानता है कोई
टूटना, गिरना और लड़खड़आना
फिर भी
उठना, चलना और बस
अविरत
मंजिल कि ओर सिर्फ चलते जाना
नवजीवन का गीत
कदम कि ताल पर
मंद मंद गुनगुनाना।
तब चाह होती है
कल्पनाओं को धारा पर उतार लाने कि,
खोने के डर से दूर
बस सब कुछ पाने की।
और जब,
सपनो को यथार्थ में
परिणित् कर पाता है मानव,
उनके टूटने के डर से रहित
तब
नए नए सपने पुनश्च
आखॉ मॅ सजाता है मानव।

I dedicate this poem to my dear friend Manadr who literally forced me to change optimistic end for this poem। Mandy its for you…
-संदीप
११/०४/२००३

1 comment:

Rumy said...

fonts thode chotee hai ..