Thursday, January 24, 2008

बस मौन रहो

मेरे स्पर्शों को तुम सिर्फ्
अनुभव करो
कुछ ना कहो
बस! मौन रहो ।
तुम्हारे अंग अंग की भाषा
मेरे अंगों को मालूम है
फिर क्यों शब्दों के
जाल बुनें मैं और तुम ।
देखो! नयनों ने समझ ली
तुम्हारे नयनों की भाषा
शायद इसलिये शर्म से
झुक गये हैं ।
ऑठ चाहते हैं, शायद सानिध्य
तुम्हारे ऑठों का
शायद इसलिये वे बार बार
दांतों से भींच जाते हैं
अंगुलियां भी क्यों अविरत
तुम्हारे केशों से क्रिडा कर रहीं
स्पनंदन देखो ह्रदय का
यूं ही बढा जा रहा है ।
जानते हो क्या
मुझे कहना है
तुम्हारे शब्दों की सीमा
मुझे भी ज्ञात है
तो.............
सिर्फ मेरे स्पर्शों को
तुम अनुभव करो
कुछ न कहो
बस! मौन रहो ।


- सन्दीप
१५/०४/९९

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