Thursday, January 11, 2018

महायज्ञ

एक महायज्ञ मे हमने भी
अपनी समिधा डालीं थी
उस हवनकुण्ड की अग्नी से
प्रखरित धरा की लाली थी।
हम भरतपुत्रो ने मिलकर जब
माँ भारती का आव्हान किया
दुर्जन निर्दलन की आशा में
मातृभूमी का गुणगान किया।
जब मंत्र वंदे मातरम्
वायु के वेग से मिलता था
तब धरा स्तंभित होती थी
और गगन हुंकारे भरता था।
उस यज्ञकुण्ड की ज्वाला के
अब भी निखारे जलते हैं
प्रत्येक आहुती के बदले
एक जीवन प्रज्वलित करते हैं।
- संदिप प्रल्हाद नागराले
३-१-२०१८
शिवशक्ती संगम -एक महायज्ञ के स्मरण मे.....

Friday, June 30, 2017

माँ

पता नहीं तुमसे फिर मुलाकात हो न हो
मेरे लौटने का इंतजार करना,
मत जाना 
रूँधे गले से जो मैंने माँ से कहा
तो हम दोनों की आँखे डबडबा गयीं
थरथराते हातों से उसने मेरा
सिर सहलाया, बाल ठीक किये
और बोली
अपने सपनों को पूरा करो
मैं तो जी चुकी बेटा !
अब तुम अपनी जिंदगी जी भर के जियो |
कुछ ख़्वाब मैंने देखे थे
उन्हें पूरा होते भी देखा है मैंने
जो ख़्वाब तुमने देखे हैं
जाओ उन्हें जगते देखो |
पंख पाते हैं तो पंछी
आगाज़ करते हैं
उनके बच्चे भी घोसला छोड़ एक दिन
ऊँची उड़ान भरते हैं |
तुम्हे ऊँचाइयों में उड़ता देख
मैं खुश हो लूंगी
ख़ुशी ख़ुशी में मैं
दो चार दिन ज्यादा ही जी लूंगी |
मगर रुकने की बात न करना
कहीं मेरे प्राण ना अटक जायें |
बहुत कोशिश की उसने
कहीं आँसू न बह जायें |
बड़े अनमने मन से मैं
वहाँ से निकला
पीछे मुड़कर न देख पाया
पर सिसकियों की आवाज़
सुनाई तो दी थी.....
कई मंज़िलें पा चुका हूँ मैं
तब से अब तक
आज भी नई ऊंचाइयों को मेरी
बुलंदियाँ छू लेती हैं
अपने खालीपन के ऊमस से
परेशान हो
जब जब पीछे मुड़कर देखता हूँ
माँ भी वहाँ अकेली खड़ी दिखाई देती है |

संदीप प्रल्हाद नागराले
१६-०७-२०१३ 

Monday, October 3, 2011

मन

मन चिंतन रुपि एक योगी
देस विदेस का भ्रमण करे
कभी दुखों से अंजुली भरता कभी
सुखों की सौगात करे

मन एक औलिया के जैसा
हर दर पर झोली फ़ैलाता है
करता याचना भिक्षा की
और खाली हाथ रह जाता है

मन एक कलंदर अविनाशी
जोत अलख की जगाता है
अँधकार की सीमा पर भी
थोडा प्रकाश फैलाता है

मन उस संन्यासी के जैसा
जो मोक्ष मार्गस्थ किये
सब मोह रिते कर जीवन के
पर ज्ञान कमंडलु भरे हुए

मन वैरागी वैराग्य लिए
जग के अस्तित्व को झुठलाता है
सजीवों को निरुपाय कहता और
पत्थरों को देव बतलाता है

मन ब्रम्हवृंद है इस तन की
देवों सी करता वंदना
कभी गौरव श्लोक अर्पण करता
कभी करता निर्घूण भर्त्सना

मन मानों तो है योगेश्वर
जीवन रहस्य को सिखलाते
कभी मृत्यु को भाषित करते
कभी जीवन मार्ग दिखलाते

मन तो मन है बस मन जैसा
जब चाहे जैसा रूप धरे
सुख दुःख के हिंडोलों पर बैठा
आस निरास के खेल करे

-संदीप प्रल्हाद नागराले
०१-अक्टूबर-२०११

Sunday, April 24, 2011

अभिव्यक्ति

पूर्वार्ध
शब्दों की उधेड़बुन,
और बनते बिगड़ते ताने बाने
अँगुलियाँ खेलती केशों से अविरत
या करती कबड्डी माथे पर
असफल होते सारे प्रयास
फिर भी शब्द मुठ्ठी मे आते ही नही
झट से फिसल जाते हैं
कागज पर बिखर जाते हैं
बच्चों से रूठते हैं
और फिर मान जाते हैं
बार बार की इस उहापोह से
हैरान हूँ मैं
कितना अच्छा होता जो
इन शब्दों का अस्तित्व होता
बातें करते मुझसे
समझते मेरी भावनाओं को
और उस प्रयास को जो
आरंभ होता है तब जब
शब्दों को अर्थ नही मिलता
और अंत मेरे स्वयं के
अंतर्द्वंद से होता है

उत्तरार्ध्व
इन दिनों शब्द मेरे
आस पास तरंगते हैं
भावनाओं का मूर्त रूप लेकर
उन शब्दों का स्पर्श मैं
अनुभव कर सकता हूँ
मंच का आधार लेकर
टूटते बनते बिगड़ते
उठाते चलते गिरते
मैं शब्दों से घिरा रहता हूँ
अलग अलग भावनाओं
को दर्शाते
एक नया विश्व, नया आयाम खोलते
मुझसे मेरी पहिचान कराते
इन शब्दों को
इन भावों को
इस विश्व को कला नाम दे दिया है
यही कला शब्दों को रूप देती है
उनमे रंग भरती है
अन्तत:,
शब्दों को कला ही अभिव्यक्त करती है

- संदीप नागराले
१८/०४/२०११

Tuesday, April 15, 2008

कला-अविष्कार

उस दिन की सुबह ही
कुछ निराली थी
प्रकृति, कुछ अनुपम गुल्
खिलानें वाली थी
सृष्टि के हर जीव को
आमंत्रण था, क्योंकि
सुरज के संग
चंदा का मिलन था
और सारी सृष्टि
इसकी साक्षी बननें वाली थी ।

सुबह-सुबह सुरज ने दर्शन दिये
इस अट्टाहास से कि
आज इन्हीं सहस्त्र कोटि
किरणों से चन्दा को
आलिंगन करने वाला हूं ।

और बलखाती निकल पडी तब
चन्दा कि भी सवारी
आतूर मन से विस्मित नयन से
देख रही सृष्टि सारी
तारों ने भी चमक-दमककर
अपनी खुशी जताई
तो सुरज नें भी खुश होकर
चन्द्र क्रिडाय़ें दिखलाईं
और क्षण भर में हुआ अंधेरा
था क्षण अनोखा आया
इस सृष्टि का स्वामी सुरज
चन्दा की बाहों में था समाया ।

अंधकार की सीमा को तोडकर
सुरज नें चन्दा को पहिना दी
अंगुठी हिरों वाली
तो तारों के साथ साथ
इस अनंत कोटि ब्रम्हाण्ड नें
प्रकृति के इस अनुपम कलाआविष्कार को
झुक-झुककर प्रणाम किया ।

सन्दीप

Friday, February 1, 2008

मृत्यु के पदचिन्ह

चार कन्धों पर उठाकर
एक बेजान शरीर को
बोझिल कदमों से
यहां तक लाया जाता है ।

जिस शरीर का एक एक अंग
गति का अनुभव करते थे
सिर्फ क्षण भर में
निर्जिव हो जाता है ।
जो आंखें जीवन का अस्तित्व
अनुभव करतीं थीं कभी
अब शून्य को ताकती
रह जाती हैं ।
वाचालता के किस्से कहती
जीभ
अब शब्दहीन हो गई है ।

आज फिर एक शरीर
यहां लाया गया है
'राम-राम' के समुह स्वरों के साथ
शांति को भंग करते
कई ध्वनि अपने संग लाया है
शोर
पीछे बहती नदी का ।
पुरोहित के मन्त्रोचारों का ।
कौवों के कलरव का ।
परिजनों की आंहों का ।
अग्नि की चटचटाहट का ।
हड़िडयों की कड्कडाहट का ।
एक एक मनुष्य के
श्वास का ।
हृदय से निकलते
उच्छवास का ।
समयचक्र के चलनें का ।
अश्रुबिंदुऑ के ढलनें का ।

और फिर एकाएक!
सब कुछ शांत हो जाता है
पूर्ववत!
सब चले जातें हैं ।
रह जातें हैं तो सिर्फ
एक सन्नाटा
कौवों की कांव-कांव
चिता से उठता धुंवां
और दूर तक जाती
सुनीं पगडंडियां,
जिन पर छोड जाती है,
म्रूत्यु अपनें पदचिन्ह ।

सन्दीप

Thursday, January 24, 2008

बस मौन रहो

मेरे स्पर्शों को तुम सिर्फ्
अनुभव करो
कुछ ना कहो
बस! मौन रहो ।
तुम्हारे अंग अंग की भाषा
मेरे अंगों को मालूम है
फिर क्यों शब्दों के
जाल बुनें मैं और तुम ।
देखो! नयनों ने समझ ली
तुम्हारे नयनों की भाषा
शायद इसलिये शर्म से
झुक गये हैं ।
ऑठ चाहते हैं, शायद सानिध्य
तुम्हारे ऑठों का
शायद इसलिये वे बार बार
दांतों से भींच जाते हैं
अंगुलियां भी क्यों अविरत
तुम्हारे केशों से क्रिडा कर रहीं
स्पनंदन देखो ह्रदय का
यूं ही बढा जा रहा है ।
जानते हो क्या
मुझे कहना है
तुम्हारे शब्दों की सीमा
मुझे भी ज्ञात है
तो.............
सिर्फ मेरे स्पर्शों को
तुम अनुभव करो
कुछ न कहो
बस! मौन रहो ।


- सन्दीप
१५/०४/९९