Sunday, April 24, 2011

अभिव्यक्ति

पूर्वार्ध
शब्दों की उधेड़बुन,
और बनते बिगड़ते ताने बाने
अँगुलियाँ खेलती केशों से अविरत
या करती कबड्डी माथे पर
असफल होते सारे प्रयास
फिर भी शब्द मुठ्ठी मे आते ही नही
झट से फिसल जाते हैं
कागज पर बिखर जाते हैं
बच्चों से रूठते हैं
और फिर मान जाते हैं
बार बार की इस उहापोह से
हैरान हूँ मैं
कितना अच्छा होता जो
इन शब्दों का अस्तित्व होता
बातें करते मुझसे
समझते मेरी भावनाओं को
और उस प्रयास को जो
आरंभ होता है तब जब
शब्दों को अर्थ नही मिलता
और अंत मेरे स्वयं के
अंतर्द्वंद से होता है

उत्तरार्ध्व
इन दिनों शब्द मेरे
आस पास तरंगते हैं
भावनाओं का मूर्त रूप लेकर
उन शब्दों का स्पर्श मैं
अनुभव कर सकता हूँ
मंच का आधार लेकर
टूटते बनते बिगड़ते
उठाते चलते गिरते
मैं शब्दों से घिरा रहता हूँ
अलग अलग भावनाओं
को दर्शाते
एक नया विश्व, नया आयाम खोलते
मुझसे मेरी पहिचान कराते
इन शब्दों को
इन भावों को
इस विश्व को कला नाम दे दिया है
यही कला शब्दों को रूप देती है
उनमे रंग भरती है
अन्तत:,
शब्दों को कला ही अभिव्यक्त करती है

- संदीप नागराले
१८/०४/२०११

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