किसी एक दिन ब्राम्ह्ववेला मे
हुआ जब पक्षिऑ का शोर्
तब मन्द मन्द जीवन सुगन्ध ले
चला समीर क़ुन्जनबन की ओर्
आम्र् नीम् नीलगिरी, बेल के
सुन्दर सघन वन्
हवा के आलिंगन से
हुवा कुछ कम्पन्
बेलवृक्ष जब नर्तन कर
हवा के संग लहराये
छोङ वृक्ष का साथ बिल्वदल
झडकर भूमि पर आये।
कुछ टूटे से, कुछ् पीले से
कुछ सडकर गीले गीले से
कुछ अच्छे से, कुछ क़च्चे से
कुछ क़ोमल क़ोमल बच्चे से
कुछ वृघ्द हुए,कुछ मुडे हुए
कुछ अधकटे बेजान हुए
कुछ पतॉं कि दो ही शाखें थीं
कुछ का क़िटों ने था नाश किया
पर इनमें भी कुछ अछ्छे पत्ते थे
तीनों शाखों से पूर्ण और
हरियाली परिधान किये ।
उन पत्तों का था भाग्य बडा
जो संग लिखवाकर थे वे लाये
चुन चुनकर एक एक को
भक्तों नें
ईश्वर के शीश चढाये
देख भाग्य की यह करनी
अन्य पत्ते बहुत पछताये ।
एक वृक्ष के
एक डाल की
हम सन्तानें
संग जनम ले, संग् पलें हम्
फिर क्यों दूजा भाव?
हाय विधाता खेल तेरा
कोई समझ ना पाये
उन्हें शिर्ष ईश्वर का मिला
हम धूल धरा की खायें
हाय ! हाय !
क्रंदन उन पत्तों का
बेल वृक्ष देख रहा था
जीवन चक्र की सच्चाई का
वह एक मौन दर्शक था
कुछ बात आई मन में
वह नादानी पर मुस्काया
बोला
यही जीवन है ।
यही यथार्थ है ।
दर्शन यही है ।
यही सत्य है कि
नेत्र हमेशा धोखा खाते हैं
सम्मुख का देख सकते हैं
और पार्श्व छुपाते हैं
जो ईश्वर है,
वह सब देखता है
न कम ना ज्यादा
सबका बराबर ध्यान रखता है
जीन बेलपत्रों को आज
तुमनें उसके शीश पर देखा है
वे कल प्रातः होते ही
फेंक दिये जायेंगे
अन्य नवपल्लवित बिल्वदल
उनकी जगह पायेंगे
सोचो तुमनें क्या पाया है ?
क्या कुछ खोकर
तुम विशिष्ठ हो
जो देवों के
शीश नहीं चढते हो
यहीं दफन हो
धरा को
उर्वरित करते हो ।
सोचो कोई पौधा नया
उस पर अन्कुरित जब होगा
ऐसी मृत्यु का वरण क्या
जीवन से श्रेष्ठ ना होगा ?
और कहूं क्या?
भाग्य पर यूं दोष क्यों धरते हो
बिल्वदल हो
झड झडकर मां वसुन्धरा का
प्रथम आभिषेक तुम ही तो करते हो ।
सन्दीप
०४/०९/२००२
हुआ जब पक्षिऑ का शोर्
तब मन्द मन्द जीवन सुगन्ध ले
चला समीर क़ुन्जनबन की ओर्
आम्र् नीम् नीलगिरी, बेल के
सुन्दर सघन वन्
हवा के आलिंगन से
हुवा कुछ कम्पन्
बेलवृक्ष जब नर्तन कर
हवा के संग लहराये
छोङ वृक्ष का साथ बिल्वदल
झडकर भूमि पर आये।
कुछ टूटे से, कुछ् पीले से
कुछ सडकर गीले गीले से
कुछ अच्छे से, कुछ क़च्चे से
कुछ क़ोमल क़ोमल बच्चे से
कुछ वृघ्द हुए,कुछ मुडे हुए
कुछ अधकटे बेजान हुए
कुछ पतॉं कि दो ही शाखें थीं
कुछ का क़िटों ने था नाश किया
पर इनमें भी कुछ अछ्छे पत्ते थे
तीनों शाखों से पूर्ण और
हरियाली परिधान किये ।
उन पत्तों का था भाग्य बडा
जो संग लिखवाकर थे वे लाये
चुन चुनकर एक एक को
भक्तों नें
ईश्वर के शीश चढाये
देख भाग्य की यह करनी
अन्य पत्ते बहुत पछताये ।
एक वृक्ष के
एक डाल की
हम सन्तानें
संग जनम ले, संग् पलें हम्
फिर क्यों दूजा भाव?
हाय विधाता खेल तेरा
कोई समझ ना पाये
उन्हें शिर्ष ईश्वर का मिला
हम धूल धरा की खायें
हाय ! हाय !
क्रंदन उन पत्तों का
बेल वृक्ष देख रहा था
जीवन चक्र की सच्चाई का
वह एक मौन दर्शक था
कुछ बात आई मन में
वह नादानी पर मुस्काया
बोला
यही जीवन है ।
यही यथार्थ है ।
दर्शन यही है ।
यही सत्य है कि
नेत्र हमेशा धोखा खाते हैं
सम्मुख का देख सकते हैं
और पार्श्व छुपाते हैं
जो ईश्वर है,
वह सब देखता है
न कम ना ज्यादा
सबका बराबर ध्यान रखता है
जीन बेलपत्रों को आज
तुमनें उसके शीश पर देखा है
वे कल प्रातः होते ही
फेंक दिये जायेंगे
अन्य नवपल्लवित बिल्वदल
उनकी जगह पायेंगे
सोचो तुमनें क्या पाया है ?
क्या कुछ खोकर
तुम विशिष्ठ हो
जो देवों के
शीश नहीं चढते हो
यहीं दफन हो
धरा को
उर्वरित करते हो ।
सोचो कोई पौधा नया
उस पर अन्कुरित जब होगा
ऐसी मृत्यु का वरण क्या
जीवन से श्रेष्ठ ना होगा ?
और कहूं क्या?
भाग्य पर यूं दोष क्यों धरते हो
बिल्वदल हो
झड झडकर मां वसुन्धरा का
प्रथम आभिषेक तुम ही तो करते हो ।
सन्दीप
०४/०९/२००२
2 comments:
behatarin..............
Superb.. Great poetry.. Keep it up!... Ravi Gopaluni
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